हिंदी दिवस पर विशेष : ” हिंदी में कला लेखन परंपरा बहुत अधिक विकसित नहीं हुई “
अस्थाना आर्ट फ़ोरम के मंच पर हिंदी कला लेखन व कला समीक्षा पर कलाकारों व कला लेखकों ने प्रस्तुत की अपनी टिप्पणियां

क्राइम रिव्यू
लखनऊ। हिंदी दिवस के अवसर पर अस्थाना आर्ट फ़ोरम के ऑनलाइल मंच पर देश के कलाकारों, कला लेखकों व कला समीक्षकों, आलोचकों और कवियों ने अपनी टिप्पणी प्रस्तुत की। जयपुर राजस्थान से कला आलोचक राजेश व्यास ने कहा कि हिंदी में कला लेखन की परंपरा बहुत अधिक विकसित नहीं हुई। आरम्भ में कलाओं पर वासुदेव शरण अग्रवाल, भगवत शरण उपाध्याय, प्रेमचंद, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, रामचरण शुक्ल, आदि ने कलाओं पर लिखा भी पर बाद में विधिवत इसकी बढ़त नही हुई। कुछ हिंदी लेखकों ने भारतीय कलाओं पर लेखन को यह कहकर खारिज करने का प्रयास किया कि हमारे यहां कला की शब्दावली नहीं है। मैं यह मानता हूँ, यही बौद्धिक दरिद्रता है। भारतीय कला के समृद्ध अतीत के साथ सम्पन्न आधुनिकता पर मौलिक दीठ से हिंदी में लिखा जाता है तो वह आज भी पसन्द किया जाता है। पिछले दो दशकों से हिंदी में कलाओं पर कॉलम लिख रहा हूँ। पाठक हैं, तभी तो यह लिखना होता है। हिंदी में लिखे की कूंत जरूरी है। पर जरूरी यह भी है, जो लिखा जाए वह सूचनात्मक नहीं, कलाओं से रसिकता जगाने वाला विचारपरक हो। इसी से इस लेखन की सार्थकता साबित होगी। लखनऊ उत्तर प्रदेश अखिलेश निगम (वरिष्ठ चित्रकार, कला समीक्षक, इतिहासकार ) ने कहा कि हिन्दी में कला समीक्षा का अपना महत्व है, और उतनी ही आवश्यकता भी। इसका दायरा बढ़ा तो है पर उतना नहीं, जितना इसे होंना चाहिए। इस संदर्भ में यह भी गौरतलब है कि कलाकारों की मन:स्थितियां भी बदली हैं. उनकी अपेक्षा समीक्षा नहीं, प्रसंशा बन गयी है! समीक्षा की कसौटी पर हिन्दी कला समीक्षकों की संख्या नगण्य ही है. उनमें भी ऐसे कम ही हैं जो कला – कर्म से जुड़ाव रखते हों। हिन्दी में कला समीक्षा, भविष्य में, अपनी शास्त्रीयता पर खरी उतरे, यह अपने आपमें महत्वपूर्ण है परंतु इसके लिए कलाविदों को प्रयास करने होंगे, और कला शिक्षा – पाठ्यक्रम में कला समीक्षा को जोड़ने पर बल देना होगा। हिन्दी कला समीक्षा समृद्धिपूर्ण हो इसी शुभेच्छा सहित ‘हिन्दी दिवस’ की शुभकामनाएं। नई दिल्ली से अरविन्द ओझा (कलाकार और कलाविद) ने कहा कि भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं बल्कि मनुष्य का चरित्र भी होता है । भारतीय कला दृष्टि को एक व्यापक संदर्भ और अर्थ में समझने में जो भूमिका हिन्दी भाषा की हो सकती है वह अन्य भाषाओं में संभव नहीं। शब्द और रुप का अन्योन्याश्रित संबंध होता है । हिन्दी भाषा में सार्थक कला समीक्षाओं का अभी भी प्रचुर अभाव दिखता है । जहां भारतीय कला को हिन्दी भाषा के मनोविज्ञान के और ज्यादा नजदीक जाने की जरूरत है वहीं हिन्दी भाषा को भी अपनी अभिव्यक्ति और संरचना में कला के आंतरिक सौन्दर्य के अन्तर्भूत तत्त्व को सहज वरण करने की आवश्यकता है ।
वाराणसी से मूर्तिकार राजेश कुमार ने कहा कि “निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल। बिन निज-भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल।” भारतेंदु हरिश्चंद्र की ये पंक्तियां अक्सर हिंदी दिवस पर उद्धृत की जाती है और फिर हम अंग्रेजी के आकर्षण से विमुक्त नहीं हो पाते। जबकि हमारी भारतीय भाषा के रूप में हिन्दी ही हमारी कला, संस्कृति और संस्कारों की उन्नति का मूलाधार है। दैनिक जीवन में बच्चों के प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा प्राप्त करने तक अंग्रेजी हमारे माथे होता है और हिंदी कहीं विवश ,स्तब्ध खड़ी मिलती है। वास्तविक धरातल पर यह प्रदर्शन कहीं न कहीं भविष्य के लिए बड़ी चुनौती भी बन सकती है।
कला के क्षेत्र में हालांकि कुछ सकारात्मक बदलाव कुछ दशकों में देखने को मिला। यह की कला लेखन , समीक्षा, आलोचना , समालोचना, साहित्य आदि में हिंदी का प्रचलन बढ़ा है, जिससे कला के प्रति कला रसिक आमजनों से लेकर कला मर्मज्ञों तक एक सुगम्य तरीके से बोधगम्यता और सुबोधिता के कारण जुड़ाव बढ़ते सहज देखा जा सकता है , परिणाम स्वरूप कला लेखन में रूचि लेने वालों की संख्या भी बढ़ी और इसका विस्तारिकरण भी हुआ जो कला क्षेत्र में भी बेशक हिंदी उन्नति का आधार बना। नई दिल्ली से चित्रकार व कला समीक्षक रविन्द्र दास ने कहा कि हिंदीं भाषा में कला पर आलेख और पुस्तकें कलाकारों के लिए कितना आवश्यक है ये बात आप किसी हिंदी प्रदेश के कलाकारों से कला पर सामान्य बातचीत करके भी आसानी से समझ सकते हैं l दरअसल अधिकतर कला सम्बन्धी आलेख और पुस्तकें अंग्रेजी भाषा में ही उपलब्ध हैं यही वजह है कि हिंदी प्रदेशों के कलाकार कला सम्बन्धी ताज़ी जानकारियों की अपेक्षा काम करने को ज्यादा तरजीह देते हैं l हिंदी में अधिकतर लेखन हुए भी तो ऐतिहासिक ,पारम्परिक कलाओं या लोककलाओं पर आधुनिक या समकालीन कलाओं पर नहीं के बराबर लेखन हुआ है l जो थोड़े बहुत कला आलोचक या लेखक लिख भी रहे हैं वे इतने समर्थवान नहीं की उन आलेखों को पुस्तक के रूप में छपवा सकें l कलाकार या कला से जुड़े छात्र भी कुछ हद तक इसके लिए जिम्मेवार हैं वे पुस्तकें खरीदते भी नहीं उनमे रूचि भी नहीं है क्योंकि अधिकतर कलाकार हाथ में डैम होना ही कला मानते हैं l जयपुर राजस्थान से अमित कल्ला चित्रकार, कला लेखक ने कहा कि मेरी नज़र में हिंदी भाषा और कला इन दोनों की गति, इनका मूल स्वभाव प्रक्रिया रूपक है, जैसे समस्त कलाएं भिन्न-भिन्न आयामों के साथ प्रतिपल निखरती है वैसे ही हिंदी भाषा भी हर क्षण अभिन्न नवीनता को अपने भीतर तलाशती और तराशती है, कलाओं में किसी भी विचार की अभिव्यक्ति विषय से अधिक महत्वपूर्ण होती है जिसकी सशक्त बयानगी हिंदी जैसी नवाचारी भाषा में ही यथासंभव है, यहाँ किया गया कला लेखन अपने आपमें कलानुभूति की अतुलनीय विवेचना से गुजरने जैसा ही अनुभव है जो उसकी गहराई को दर्शाने वाले प्रारूप को प्रतिबिंबित करता है | कला समीक्षा की दृष्टि से हिंदी शब्दावरी में अनेकानेक ऐसे शब्द मौजूद हैं जो सृजनयात्रा के दार्शनिक बिम्बों को सहज भाव से अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं जो प्राचीन और नवीनता के सायुज्य की संतति है… । आलोक कुशवाहा (प्रधानाचार्य कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ ) ने कहा कि हिंदी में स्तरीय कला लेखन अपेक्षाकृत कम हो रहा है। बड़े मीडिया समूह के पास भी उत्कृष्ट समालोचक नहीं हैं। जैसी गंभीर चर्चा प्रायः अंग्रेजी में पढ़ने को मिलती है वह हिंदी में क्यों नहीं ? स्थानीय देशज भाषा मे भी गंभीर कला समालोचना के लिए स्थान होना चाहिए। नए पाठक वर्ग को मजबूत करने की जरूरत है। अंग्रेजी कि तरह कला भी अभिजात्य तक कैद है। नए अभिजात्य को चाहिए कि वह अपनी भाषा मे गंभीर चिंतन को बढ़ावा दें। अनुवाद पर अधिक ध्यान देना होगा। शुद्धतावाद के बजाय हिंग्लिश का समर्थन करना होगा।
वाराणसी से युवा कवि रोहित अस्थाना निरंकारी ने अपनी हिंदी दिवस पर कविता प्रस्तुत की – ” सुंदर सहज सनातन भाषा, हिंदी अभिमान हमारा है।
इसी से है पहचान हमारी, और हर सम्मान हमारा है।
कहीं लुप्त ना हो जाये यह, इसपर गहन विचार करें,
गूंज उठे भू-मंडल सारा, हिंदी की जय-जयकार करें।
कर्तव्य निभाएंगे भारत का, हर सपना साकार बनाकर।
लेखन,गायन,भाषण और, कलाओं को आधार बनाकर।
हिंदुस्तान की भाषा हिंदी, “रोहित” हम प्रचार करें,
गूंज उठे भू-मंडल सारा, हिंदी की जय-जयकार करें।।2।।
चित्रकार व क्यूरेटर भूपेंद्र कुमार अस्थाना ने महात्मा गांधी जी के एक विचार ” मैं इसलिए हिंदी में बोलता हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि यही भाषा राष्ट्र की आत्मा को सहज ढंग से व्यक्त कर सकती है।” भाषा वही अच्छी है जिसमे हम अपनी अभिव्यक्ति एक बेहतर ढंग से कर सकें। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण ही है जिस देश की भाषा ही हिंदी हो अब वहाँ भी हिंदी दिवस मनाने की जरूरत पड़ गई। देश का लगभग तीन चौथाई हिंदी भाषा समझता है। हिंदी हमारे राष्ट्र की अभिव्यक्ति का सरलतम स्रोत है। संस्कृत और हिंदी देश के दो भाषा रूपी स्तम्भ है जो देश की संस्कृति परंपरा और सभ्यता को विश्व के मंच पर प्रस्तुत करते हैं। हिंदी भाषा विश्व की सबसे ज्यादा बोले जाने वाली तीसरी भाषा है। हिंदी एक ऐसा फूल है जो मधुरता, सुंदरता औऱ सुगंध से भरपूर है। मधुरता के कारण हिंदी सरल और मीठी है,सुंदरता के कारण हिंदी शिष्ट और सुगंध के कारण विशिष्ट है। हिन्दी का व्यक्तित्व वर्णमाला में काफी विशाल है। हिंदी में वह सामर्थ्य है कि संसार की किसी भी बोली और भाषा को ज्यो का त्यों लिखित रूप दे सकती है। हिंदी हमारी मातृ भाषा है लेकिन अंग्रेजी तरक्की की। हम मातृ भाषा से दूर हो रहे है। हम बच्चों को हिंदी की जगह अंग्रेजी शब्द बोलने को मजबूर करते है। आज का भारतीय हिंदी बोलने में कतराता है। अंग्रेजी बोलने और लिखने वाले ही आज शिक्षित माने जाने लगे है। विदेशों में हिंदी और संस्कृत भाषाओं में शोध कार्य किये जा रहे हैं लेकिन यहाँ नही। कोई भी भाषा पढ़ना सीखना अच्छी बात है। लेकिन अपनी मातृभाषा को मुख्य आधार बनाये रखा।