मत बांधो अपने आंचल में, मुझको यूं ही उड़ने दो

       शीर्षक “अस्तित्व”

मुझको यूं ही रहने दो,
गिरि अंचल से उठकर के जब चंद्र किरण का अमृत पीती, पवन सुगंधित बन जाती मैं , उन्मुक्त गगन मैं बहती
रहती,
मत बांधो अपने आंचल मैं, मुझको यूं ही उड़ने दो।
तुम मुझको यूं ही रहने दो।
तुमने आमंत्रण दे कर क्यूं अपने पास बुलाया मुझको, प्रेमपाश
मे बांध के अपने ,
कितना नाच नचाया मुझको,
मैं बंजारन रही उनिंदी, जान न पाई मन को तेरे,
चल प्रपंच के चोटों से क्यों , घायल कर दिया मन को मेरे
अब तो बस उन्मुक्त कर दो,
तपते सहरा को सहने दो,
मुझको यूं ही रहने दो

नीरू नीर

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!