सपा में टीपू से नहीं बन सके सुल्तान, दिल्ली में भी खत्म हो रही पार्टी की ताकत, सबसे निचले स्तर पर पहुंची पार्टी

क्राइम रिव्यू

लख़नऊ। उत्तर प्रदेश के साथ ही केंद्र की राजनीति में दखल देने वाली समाजवादी पार्टी अपने राजनीतिक करियर के सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुकी है। समाजवादी पार्टी का गढ़ माने जाने वाले रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीटों के उपचुनाव में हार के बाद अब दिल्ली में सपा की ताकत कम हो गई है। जबकि सपा कभी न कभी केंद्र सरकार की राजनीति में काफी दखल देती थी। फिलहाल रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने जीत हासिल की है और उसके बाद लोकसभा में सपा के सिर्फ तीन सदस्य ही बचे हैं. जबकि राज्यसभा में भी सपा के सदस्यों की संख्या केवल तीन है।

फिलहाल रविवार को आए चुनाव परिणाम में रामपुर में भाजपा के घनश्याम लोधी ने सपा प्रत्याशी आसिम रजा को 42 हजार मतों से हराया, जबकि आजमगढ़ उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के धर्मेंद्र यादव को भी हार का मुंह देखना पड़ा। यहां बीजेपी के दिनेश लाल यादव ने धर्मेंद्र यादव को हराया और अखिलेश यादव का किला तोड़कर ध्वस्त कर दिया। इन दोनों सीटों पर हार के बाद अब समाजवादी पार्टी की ताकत कम हो गई है और अब उसकी ताकत 5 से घटकर 3 रह गई है। 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव और मायावती ने गठबंधन किया था और फिर सपा को पांच सीटें जीतने में सफलता मिली थी। जबकि बसपा ने दस सीटों पर जीत हासिल की। लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा का जादू नहीं चला और दोनों ही दलों को सिर्फ 15 सीटें मिलीं। सपा आजमगढ़, रामपुर, मैनपुरी, मुरादाबाद और संभल सीट जीतने में कामयाब रही।रामपुर में सपा नहीं आजम खान की हुई है बड़ी सियासी हार

दिल्ली में सपा की ताकत घटी

अगर 2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो उत्तर प्रदेश में सपा ने पांच सीटें जीती थीं और उसके बाद उसकी लोकसभा में सिर्फ तीन सदस्य बचे हैं। रामपुर में आजम खान और आजमगढ़ में अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज की थी और अब ये दोनों सीटें सपा के हाथ से निकल गई हैं।

विधायक बनने के बाद लोकसभा की सदस्यता से दिया इस्तीफा

अखिलेश यादव आजमगढ़ लोकसभा सीट से सांसद चुने गए और 2022 के विधानसभा चुनाव में करहल सीट से विधायक का चुनाव जीते। इसके साथ ही उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। जबकि रामपुर से लोकसभा चुनाव जीतने वाले आजम खान ने भी विधायक बनने के बाद लोकसभा की सदस्यता छोड़ दी थी। इन दोनों सीटों पर दोनों ने अपने करीबियों को टिकट दिया। लेकिन दोनों ही जीत हासिल करने में सफल नहीं हो सके। जिसे सपा के लिए बड़ा राजनीतिक झटका माना जा रहा है।

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